The Baran City's Most Visited Place (SitaBari )
SitaBari Temple
सीताबाड़ी मेला बारां जिले के केलवाड़ा गाँव के पास आयोजित होता है। सीताबाड़ी को भगवान राम की पत्नी सीता ने लक्ष्मण द्वारा उनके निर्वासन की अवधि की सेवा करने के लिए छोड़ दिया गया था। किंवदंती यह है कि लक्ष्मण ने सीता के लिए पानी लाने के लिए एक तीर से ज़मीन पर गोली चलाई थी। इस धारा को 'लक्ष्मण बभुका' कहा जाता है। सभी समुदायों के लोग टंकियों (कुंडों) में स्नान करने के लिए सीताबाड़ी जाते हैं, जो हमेशा साफ, ताजे पानी से भरे होते हैं। 'कुंड' का पानी पवित्र माना जाता है और माना जाता है कि इसमें गुणकारी गुण होते हैं।
लोग शरीर और आत्मा की शुद्धि के लिए पवित्र डुबकी लगाने के लिए और विभिन्न देवताओं, जिनकी छवियों को यहां स्थापित किया गया है, को समर्पित करने के लिए 'कुंड' की यात्रा करते हैं।
सीताबाड़ी मंदिर का इतिहास:
ऐसा माना जाता है कि माता सीता (रामायण काल में भगवान राम की पत्नी) भगवान राम द्वारा छोड़े जाने के बाद महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में इस स्थान पर रहीं थीं। इसे लव और कुश नाम के उनके दो बेटों के जन्म स्थान के रूप में भी जाना जाता है। माता सीता की कुटिया जिसे 'सीता-कुटी' के नाम से जाना जाता है, मंदिर के पास के वन क्षेत्र में स्थित है।
सीताबाड़ी का वार्षिक मेला बारां जिले की शाहबाद तहसील के केलवाड़ा गांव के पास सीताबाड़ी नामक स्थान पर आयोजित किया जाता है। इस स्थान पर यह 15 दिवसीय विशाल मेला ज्येष्ठ महीने की अमावस्या (बड़ पूजनी अमावस) के आसपास भरता है। 15 दिनों का ये मेला अपने पूर्ण परवान पर अमावस्या के दिन ही चढ़ता है तथा इस दिन ही भारी संख्या में लोग उमड़ते हैं। केलवाड़ा गाँव से कोटा की दूरी 117 किलोमीटर है तथा सीताबाड़ी स्थान बारां जिले के केलवाड़ा ग्राम से लगभग मात्र 1 किमी की दूरी पर है। तीर्थ यात्रियों के आवागमन के लिए कई बसें इस मार्ग पर चलाई जाती हैं। मेले के समय हजारों की संख्या में यात्रियों के यहाँ आने के कारण बसों की संख्या वृद्धि की जाती है। यहाँ से निकटतम रेलवे स्टेशन बारां है जो केलवाड़ा से 75 किलोमीटर की दूरी पर है।
सहरिया जनजाति का कुंभ -
यह मेला दक्षिण-पूर्वी राजस्थान की 'सहरिया जनजाति' के सबसे बड़े मेले के रूप में जाना जाता है। सहरिया जनजाति के लोग इस मेले में उत्साह पूर्वक भाग लेते हैं। इसे ''सहरिया जनजाति के कुंभ'' के रूपमें भी जाना जाता है। इस मेले में सहरिया जनजाति के लोगों की जीवन शैली का अद्भुत प्रदर्शन देखने को मिलता है।
धार्मिक आस्था का अनूठा स्थल-
कहा जाता है कि रामायण काल में जब भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया था तब सीताजी को उनके देवर लक्ष्मण जी ने उनके निर्वासन की अवधि में सेवा के लिए इसी स्थान पर जंगल में वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में छोड़ा था। एक किंवदंती है कि जब सीताजी को प्यास लगी तो सीताजी के लिए पानी लाने के लिए लक्ष्मणजी ने इस स्थान पर धरती में एक तीर मार कर जलधारा उत्पन्न की थी, जिसे 'लक्ष्मण बभुका ' कहा जाता है। इस जलधारा से निर्मित कुंड को 'लक्ष्मण कुंड' कहा जाता है। यहाँ और भी कुंड स्थित है, जिनके जल को बहुत पवित्र माना जाता है। अक्सर भक्त लोग इनमें स्नान करते एवं पवित्र डुबकी लेते देखे जा सकते हैं। इस मेले में भाग लेने आने वाले श्रद्धालु यहाँ स्थित 'वाल्मीकि आश्रम' में भी जाते हैं। लोग यह भी मानते हैं कि रामायण काल में सीताजी के निर्वासन काल में ही प्रभु श्रीराम और सीता के जुड़वां पुत्रों 'लव तथाकुश' का जन्म वाल्मीकि ऋषि के इसी आश्रम में हुआ था। यह दो सीधेपत्थरों को खड़ा करके बनाई गई एक बहुत ही सरल क्षैतिज संरचना है। सहरिया जनजाति के लोग अपनी सबसे बड़ी जाति-पंचायत का आयोजन भी वाल्मीकि आश्रम में ही करते हैं। लव-कुश जन्म स्थान होने के कारण सीता बाड़ी को 'लव-कुश नगरी' भी कहा जाता है। मेलार्थी यहाँ स्थित कुंडों में अपने शरीर एवं आत्मा की शुद्धि के लिए पवित्र स्नान करते हैं और फिर यहाँ स्थापित विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना करते हैं। यहाँ स्थित सबसे बड़ा कुंड 'लक्ष्मण कुंड' है, जिसका एक द्वार 'लक्ष्मण दरवाजा ' कहा जाता है। इसके पास भगवान हनुमानजी की सुन्दर मूर्ति स्थापित है। एक अन्य कुंड 'सूरज कुंड' है जिसका नाम सूर्य देवता के नाम पर रखा गया है। सूरज कुंड चारों ओर से बरामदे से घिरा
हुआ है। जो लोग अपने मृत परिजनों के दाह संस्कार उपरांत उनकी भस्म एवं.अस्थियों को गंगाजी में तर्पण के लिए नहीं ले जा सकते हैं, वे इस कुंड से बाहर बहने पानी में अपने परिजनों की.भस्म प्रवाहित करके उनका तर्पण करते हैं। इस कुंड के एक कोने में 'शिवलिंग ' भी स्थापित है। यहाँ अन्य कुंडों में 'सीता कुंड','भरत कुंड' एवं वाल्मीकि कुंड प्रमुख हैं। सीताबाड़ी में कई मंदिर है। मेले के दौरान यहाँ स्थित लक्ष्मण मंदिर सहित अन्य कई मंदिरों में दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। यहाँ पास के जंगल में सीता कुटी मंदिर भी स्थित है, जहाँ माना जाता है कि सीता जी यहाँ भी
रुकी थी।
सहरिया जनजाति का स्वयंवर समारोह-
यह मेला सहरिया जनजाति के युवाओं के विवाह के लिए 'विशिष्ट स्वयंवर' के आयोजन के लिए भी
पहचाना जाता है स्वयंवर के आयोजन के लिए इस मेले में सहरिया जनजाति के लोग अपने विवाह योग्य बच्चों.को साथ में लेकर आते हैं। स्वयंवर शुरूकरने के लिए किसी योग्य लड़के द्वारा एक रूमाल छोड़ा जाना आवश्यक है।.रूमाल छोड़ने की क्रिया को उसी समुदाय की लड़की के साथ विवाह करने के प्रस्ताव का प्रतीक माना.जाता है। यदि उस लड़की को शादी.का प्रस्ताव स्वीकार होता है तो वह उस रूमाल को उठा लेती है। जब लड़का और लड़की दोनों एक बार एक दूसरे से विवाह करने के लिए सहमत हो जाते हैं तो वे एक बरनावा के पेड़ के चारों ओर सात फेरे लेते है और विवाह संपन्न हो जाता है। फेरे लेने के पश्चात् उन्हें अपने बुजुर्गों के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेना आवश्यक हैं, तत्पश्चात ही उन्हें शादीशुदा घोषित किया जाता है।
उत्सव आयोजन का रोमांच-
धार्मिक तीर्थयात्रियों के विशाल जमावड़े के अलावा आस- पास के जिलों के साथ-साथ पड़ोसी राज्यों से अपना माल बेचने के लिए आने वाले व्यापारियों द्वारा लगाए जाने वाले हाट- बाज़ार भी इस मेले का मुख्य आकर्षण हैं। इस मेले में झालावाड़, अकलेरा, बूंदी, कोटा, भीलवाड़ा और नागौर आदि स्थानों से कई पशुपालक अपने उत्तम नस्ल के पशुओं को बिक्री हेतु लेकर आते हैं। मेले के दौरान सीताबाड़ी में परकोटे के अंदर लगे मनोरंजन के साधन डोलर, झूले, चकरी, मौत का कुआं सहित मनिहारी, चूड़ी, कपड़ा, खिलौनों की दुकानों पर भीड़ उमडऩे लगती है। मेले में आदिवासी अलबेले युवक-युवतियां हाथों में मशीन से नाम गुदवाने व नाम लिखी अंगूठियां खरीदने में भी अत्यधिक रुचि लेते हैं। अक्सर इस मेले में प्रतिदिन शाम व रात के समय अधिक रौनक दिखाई देती है।
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